एक ख़त दिलीप साहब के नाम
कुछ चीज़ें हम कभी नहीं चाहते कि हों पर होती हैं, जो आता है वो जाता है, जो शुरू होता है वो ख़त्म होता है , कुछ भी जावेद नहीं ।
फ़नकार और किरदार दोनों को जीना बड़ी मुश्किल बात है ।किरदार को सच करना अक़्सर फ़नकार कर ही लेता है लेकिन असली फ़नकार वो ही कहलाता है जो लोगों की असल जिंदगी मेंघर कर जाता है जिसे लोग अपना कोई साथी या घर का आदमी महसूस कर बैठते हैं। किरदार सेनाज़रीन या दर्शक कुछ पल की वाबस्तग़ी रखते हैं लेकिन सच्चे अदाकार से ताउम्र की।
बस ये ही करिश्मा दिलीप साहब का था।जिसे गली गली का इंसान अपने बीच का समझ ले।उनकी अदाकारी की तो क्या ही कहूँ ! लेकिन जितना भी मैंने उनके बारे में जाना या पढ़ा इतना हीसमझ सकी कि रूहानी दानिशमंद इंसान अब हमारे महकमे में कम ही आते हैं। यूसुफ साहब नेबतौर कलाकार मेरी आत्मा को छुआ है। जो इंसान से कलाकार का नहीं ,
कलाकार से इंसान का सफ़र तय करता है। मैंने कभी उनके कहे डायलॉग नहीं बोले, कभी उनकी ऐक्टिंग की नक़ल नहीं की ,जैसा कि मुरीद अक़्सर किया करते हैं, मैंने उन्हें सिर्फ़ देखा और देखाऔर बस देखा! कभी कभी देखने भर से भी सीख जाया करते हैं, बस नजर होनी चाहिए। एकलफ़ानी कलाकार देखने वाले को नज़र देने की क़ुव्वत रखता है, क्योंकि वो अपने फ़न का सच्चा होता है। जो आत्मा न भेदे वो कलाकार अफ़साना नहीं बनते। कहने को तो बहुत कुछ है पर क्याकहें क्या नहीं! क़ौम, धर्म ,रंग ,नस्ल, ज़ात से ऊपर..
दिलीप साहब आप सा न कोई था, न है, न होगा। अपने जाने से लाखों लोगों के दिल में जो जगह ख़ाली कर जाए फ़नकार उसे कहते हैं।
ऊपरवाला आपको अपना ख़िदमतगार करे, ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दे!
"आज कहेंगे दिल का फ़साना , जान भी ले ले चाहे ज़माना”
"Somewhere beyond right and wrong, there is a garden. I will meet you there. “
(Rumi)
आपकी नयनी
Comments
Post a Comment