निर्भर क्यों हो?

 तुम अपनी ख़ुशी के लिए दूसरों पर निर्भर होअरेअपने आप पर निर्भर रहो.. भई कमाल है !!


निर्भर होने की ख़ुशी वो ही जानता है जिसे प्रेम किया गया हो या जिसने प्रेम किया हो  कभी कभीनिर्भर होना लाचार होना नहीं होता। क्यों हम किसी के निर्भर होने को अक़्सर लाचार होने केनज़रिए से आँकने लगते हैंक्योंकि इंसान होना एक ऐसी ख़ामी है जो एक ख़ालिससाफ़ प्रेम कोकब लाचारग़ी में बदल दे पता नहीं चलता। वरना माँ का बच्चे पर और बच्चे का माँ पर ताबेदारहोना कौन सा ग़लत हैपति-पत्नी कादोस्तों का और ऐसे ही  जाने  कितनों का कितनों पर ।दरअसल निर्भरता या यूँ कहिए कि “ताबेदारी जब प्रेम के आँकड़े से ऊपर हो जाए तो प्रेम , प्रेमनहीं रह जाता। वरना यूँ देखें तो प्रेम करना और पाना दोनों ही निर्भर होना ही तो हैं।दुनिया की हरचीज़हर ज़र्राआब-हवामाहौलवातावरणहर फ़ितरत एक पतले धागे से कहीं  कहींएक दूसरे पर निर्भर ही तो हैं। मन के तारों से दिमाग़ की तशख़ीस सब कुछ…. कहीं  कहीं , किसी  किसी पर निर्भर।

तो फिर

 हम और तुम क्यों नहीं……. ? 



हर जगह जा--जा बस बस लोग रहते हैं। मैदाँ--बाज़ार--बाग़ीचा--दश्त बस लोग रहतेहैं 

उन्हीं लोगों के बीच एक तुम हो एक मैं हूँ। 


आपकी ,

नयनी 

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