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पितृपक्ष

  कहते   हैं   दादा   दादी , अपने   पोते   पोतियों   से  ,  अपने   ख़ुद   के   बच्चों   से   भी   ज़्यादा   प्यार   करते   हैं ,  तो   फिर पितृदोष   क्यों ?  आत्मा   की   शाँति   का   सम्बंध   आगे   की   पीढ़ी   से   क्यों ?  माफ़   करने   की   सीख   बड़े - बूढ़े हमें   दे   कर   जाते   हैं   और   फिर   वो   ही   दोष   बन   के   हमारी   कुंडली   पर   कैसे   बैठ   सकते   हैं  ?  उन्हें   तो   हमें ग़लत   रास्ते   पर   जाने   से   बचाना   चाहिए   ना  ?  मेरी   दादी   कभी   मन   में   द्वेष   नहीं   रखती   थीं , कोई   कैसा भी   हो   माफ़   करती   थीं   तो   ऐसे   ही   जितने   भी   पूर्वज   रहे   होंगे   क्या   वो   अपनी   पीढ़ियों   को   माफ़   नहीं करते   होंगे ?  या   उनको   वहाँ   कोई   समझाने   वाला   ना   होगा  , मेरी   दादी   जैसा  ?  गीता   को   पढ़ें   तो   पता चलता   है   कि   ऐसा   कोई   दोष   होता   ही   नहीं ,  आप   जो   पिछले   कर्म   करके   आते   हैं   उसका   ब्याज   दे   रहे होते   हैं .  ये   कौन   से   अतृप्त   पूर्वज   हैं   जो   आज   तक   हठ   लगा   के   बैठे   हुए   है

पल भर की ख़ुशी

  काफ़ी दिन हुए कुछ लिखा नहीं। आया तो बहुत कुछ , पर लिखा नहीं। इस वक़्त तो ये भी याद नहीं आ रहा कि याद क्या आया था ? ऐसा अक़्सर ही होता है हमारे साथ , क्योंकि दिमाग़ में कुछ ना कुछ जद्दोजहद तो चलती ही रहती है , कुछ ना कुछ तरद्दुद होता ही है और जब कुछ नहीं होता तो ये परेशानी खाए जाती है कि आज मौसम अच्छा है देखना कल नहीं होगा । अरे !!!!! कल की चिंता मत करो आज तो ख़ुश रहो ! जब ऐसा करो ! तो बात आती है “ बस एक पल की ख़ुशी के लिए कल की क्यों नहीं सोचते ?” तो ऐसा है कि हर समाज oxymoron पर चलता है , मानो या मत मानो !! क्योंकि विरोधाभास न होना , हर एक चीज़ के अस्तित्व को ही ख़त्म कर देगा जिससे परेशानी , अड़चन , रुकावट सामने आती हैं और अगर परेशानी ही सामने ना आएगी तो इंसान की विचार शक्ति , तार्किकता ही नष्ट हो जाएगी बाबूजी ! “If there is no conflict, there is no story .” मन चंचल होता है , उसकी अपनी गति होती है । किसी में कम - किसी में