Women’s day tamasha
नमस्कार ,
इस Womens' डे पर एक और विचार मन में आया और मैं जानती हूँ बहुत महिलाएँ मुझसे इसके बाद नापसंदगी भी रख सकती हैंलेकिन Womens day जिस समय और परिस्थति की बात है तबके दौर में महिलाओं ने अपने मौलिक अधिकारों का मोर्चा लिया था लेकिन आज ये मोर्चा एक नए आयाम पर पहुँच चुका है तो आज महिलायें क्या वाक़ई में उन महिलाओं का सम्मान कर रहीं हैं जिनके मोर्चे की वजह से वो आज यहाँ हैं ? शायद हाँ , शायद नहीं .
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं जिन देशों में, जिन समाजों में, आज भी विमेंस' डे या ऐसे empowerment की ज़रूरत हैं , हाँ वहाँ आज भी महिलाएँ स्कूल जा कर ,बाल काट कर, पर्दा हटाकर ,घर से बाहर बिना पुरुष के निकल कर , लगातार क्रांति का कर रहीं हैं और कहना न होगा कि उसका हर्जाना भी उतनी ही नृशंसता से सीने पे गोली खा कर भुगत रहीं हैं . लेकिन हम ? हमारा क्या? हम सब महिलाओं का क्या ,जिनके हाथ में सुविधा, पैसा, पढ़ाई, स्तर, सबकुछ है लेकिन पुरुष, महिला को empower नहीं होने दे रहा , का रोना लिए बैठी हैं ?
देखिये ! मेरा किसी महिला से कोई शिकवा या बैर नहीं है लेकिन मैं आज भी उन महिलाओं के लिए हैरान हूँ , जो न जाने किस बात से दुःखी और प्रताड़ित हैं ?.समझने की बात ये है कि प्रताड़ित करने के लिए सबसे अचूक अस्त्र है किसी महिला की शिक्षा और स्वाधीनता का अधिकार छीन लेना लेकिन शिक्षा, स्वाधीनता , यहाँ तक की कार चलाने जैसे मामूली अधिकार यदि आप इस्तेमाल करतीं हैं तो फिर कौन सा empowerment नहीं है आपके पास? मैं उन अधिकांश महिलाओं से पूछना चाहूँगी कि आज तक कितनी बच्चियों को, नवयुवतियों को मात्र ABCD भर की शिक्षा दी है इन्होंने?
ऐसा कौन सा empowerment का काम किया है कि दुःख का पत्ता फेंकने की छूट इन्हें दी जाये?
वो महिलाएँ जिन्हें मैंने पत्थर तोड़ते, बर्तन माँजते, कचरा उठाते ,फुटपाथ पर टाट के चीथड़ों से घर बनाते और उसमें बच्चे को स्तनपान करवाते हुए चूल्हा जलाते देखा हैं न , वो इस देश, समाज, दुनिया के सशक्तिकरण की असली महिलाएँ हैं . हम में से उन किसी भी महिलाओं को, किसी भी तरह का बदला लेने ,पुरुष को नीचा दिखाने या अपने दुःख का राग अलापने का कोई अधिकार नहीं है ,जो पुरुष की पीठ पर वेताल की तरह लदी रहना चाहती हैं .अगर आप पढ़ी-लिखी होने के बावजूद अपने संघर्षों का बीड़ा खुद नहीं उठाना चाहती तो आप किसी भी मनुष्य पर लड़ने का अधिकार नहीं रखती . ख़ुद से प्रेम करने और ख़ुदग़र्ज़ होने में बहुत हलकी लक़ीर होती है और ये फ़र्क़ आप तभी जान सकतीं हैं जब " ये काम , ये नौकरी मुझसे नहीं होगा क्योंकि मैंने ये किया नहीं' की मूर्खता से बाहर निकलेगी .
IF YOU ARE BORN AS HUMAN , YOU ARE BORN WITH PROBLEMS , कर्म पथ पर आप कब आगे बढ़ेंगी ?
दुःख आएंगे , लोग दिल तोड़ेंगे , साथ छोड़ेगे , हम रोयेंगे , भूखे सोयेंगे, फिर रोयेंगे लेकिन फिर भी क्या सशक्तिकरण के नाम पर अन्याय हमें शोभा देता है ?
मैं उस समय की बात नहीं कर रही जब महिलाएँ हताशा और प्रताड़ना के दौर से गुज़र रही थी मगर उसमें भी वो महिलाएँ थीं , जो क्रांति का आग़ाज़ बनीं थीं , तो अंजाम क्या ये होना चाहिए ? विक्टिम कार्ड ?
’दिन ब दिन मैं पुरुषों में स्त्री कि प्रति प्रेम को काम होते देखते जा रहीं हूँ और अगर आपको लगता है कि उसका कारण सिर्फ़ PATRIARCHY है तो आप न सिर्फ़ गलत हैं बल्कि आपके विचार खोखले हैं . प्रेम केवल तरह तरह के संबंधों का ही नहीं वरन सृजन का विस्तार है तो फिर कोई भी इस से अलग कैसे रह सकता है आदमी औरत जवान वृद्ध ? बात अगर cerebral equality. की है तो मुद्दा वही हो , लड़ाई वो ही हो , चेतना वो ही हो . नफ़रत और नीचा दिखना तो women empowerment. के मूल सिद्धांत को ही ख़त्म किये देता है . फिर तो हम भी उसी अन्याय का हिस्सा हो गए जिसका मोर्चा हमने पुरुषों की खिलाफ उठाया था . तो जब दोबारा वक़्त का पहिया घूमा और पुरुषों ने मोर्चा उठाया तो हम ये कहने का अधिकार खो देंगे कि हमारे अधिकार छीन लिए गए हैं . कोई भी क्राँति तब तक सफल नहीं कहलाती जब तक उसमें उत्थान की भावना न हो , तब तक वो सिर्फ़ दंगा होती है. अपने उत्थान में दूसरे के अनैतिक दमन की भावना कायरता है और मैं इस कायरता में अपनी महिलाओं को तो न गिरने दूँगी .
रही बात पुरुषों की ! तो आपका number. भी जल्दी ही आएगा कि आपसे कुछ दो दो हाथ हों , यों ख़ुश हो कि न बैठिये .
निराला की कविता में बहुत सक्षम महिला को देखा है मैंने .....
वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर—
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार :—
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गईं,
प्राय: हुई दुपहर :—
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा—
‘मैं तोड़ती पत्थर।’
women’s day की शुभकामनाएँ
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