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Showing posts from July, 2021

तुम बदल गयी हो

  You have changed now!!! …. तुम बहुत बदल गयी हो।। … हाँ … और बदलना तो बदस्तूर चलता ही है ।   मेरे ख़याल से ये बातें वो ही करते हैं , जो ख़ुद अपनी कमियों को छुपाना चाहते हैं। जो आप में बेहतराई के बदलाव नहीं चाहते , क्योंकि जो आप में बेहतर बदलाव चाहते या देखते हैं , वो सतही बातें नहीं करते और अक़्सर बदल जाने का सबब भी वो ही होते हैं जो ये सवाल दर - ब - दर आपसे किए जाते हैं । आपका बदल जाना , आप पर उनके अधिकार को जो ख़त्म कर देता है ।    बदलाव अच्छे , बुरे हर तरह के होते हैं। दुनिया बदलती है , कायनात बदलती है , वक़्त बदलता है , हालात बदलते हैं ,   शक़्ल , सूरत , मिजाज़ , रवायतें सब के सब बदलते हैं और जो नहीं बदलता वो है “ न - बदलना ” । जो ये सवाल मुझसे करते हैं वो ख़ुद भी जानते हैं कि वो ख़ुद कितनी तेज़ी से बदलते हैं। चूँकि आप पर वो अपनी सरपरस्ती खो चुके हैं इसलिए बेबुनियादी तोहमतें लगाकर वो अपने मन के एक ऐसे कोने को तसल्ली देना चा

एक ख़त दिलीप साहब के नाम

  कुछ   चीज़ें   हम   कभी   नहीं   चाहते   कि   हों   पर   होती   हैं ,  जो   आता   है   वो   जाता   है ,  जो   शुरू   होता   है   वो ख़त्म   होता   है  ,  कुछ   भी   जावेद   नहीं   । फ़नकार   और   किरदार   दोनों   को   जीना   बड़ी   मुश्किल   बात   है   ।किरदार   को   सच   करना   अक़्सर फ़नकार   कर   ही   लेता   है   लेकिन   असली   फ़नकार   वो   ही   कहलाता   है   जो   लोगों   की   असल   जिंदगी   में घर   कर   जाता   है   जिसे   लोग   अपना   कोई   साथी   या   घर   का   आदमी   महसूस   कर   बैठते   हैं।   किरदार   से नाज़रीन   या   दर्शक   कुछ   पल   की   वाबस्तग़ी   रखते   हैं   लेकिन   सच्चे   अदाकार   से   ताउम्र   की। बस   ये   ही   करिश्मा   दिलीप   साहब   का   था।जिसे   गली   गली   का   इंसान   अपने   बीच   का   समझ   ले। उनकी   अदाकारी   की   तो   क्या   ही   कहूँ  !  लेकिन   जितना   भी   मैंने   उनके   बारे   में   जाना   या   पढ़ा   इतना   ही समझ   सकी   कि   रूहानी   दानिशमंद   इंसान   अब   हमारे   महकमे   में   कम   ही   आते   हैं।   यूसुफ   साहब   ने बतौर   कलाकार   मेरी   आ

निर्भर क्यों हो?

  … तुम   अपनी   ख़ुशी   के   लिए   दूसरों   पर   निर्भर   हो ?  अरे !  अपने   आप   पर   निर्भर   रहो ..  भई   कमाल   है  !! निर्भर   होने   की   ख़ुशी   वो   ही   जानता   है   जिसे   प्रेम   किया   गया   हो   या   जिसने   प्रेम   किया   हो   ।   कभी   कभी निर्भर   होना   लाचार   होना   नहीं   होता।   क्यों   हम   किसी   के   निर्भर   होने   को   अक़्सर   लाचार   होने   के नज़रिए   से   आँकने   लगते   हैं ?  क्योंकि   इंसान   होना   एक   ऐसी   ख़ामी   है   जो   एक   ख़ालिस ,  साफ़   प्रेम   को कब   लाचारग़ी   में   बदल   दे   पता   नहीं   चलता।   वरना   माँ   का   बच्चे   पर   और   बच्चे   का   माँ   पर   ताबेदार होना   कौन   सा   ग़लत   है ?  पति - पत्नी   का ,  दोस्तों   का   और   ऐसे   ही   न   जाने     कितनों   का   कितनों   पर   ।दरअसल   निर्भरता   या   यूँ   कहिए   कि  “ ताबेदारी   जब   प्रेम   के   आँकड़े   से   ऊपर   हो   जाए   तो   प्रेम  ,  प्रेम नहीं   रह   जाता।   वरना   यूँ   देखें   तो   प्रेम   करना   और   पाना   दोनों   ही   निर्भर   होना   ही   तो   हैं।दुनिया   की   ह